Tuesday, 22 December 2015

"मैंने गाँधी को क्यों मारा"
मेरा जन्म एक धार्मिक ब्राह्मण हिन्दू परिवार में हुआ था। जिसके कारण स्वाभाविक रूप से मैं हिन्दू धर्मं, हिन्दू इतिहास, हिन्दू संस्कृति के नजदीक रहा। और मुझे हिन्दू होने पर अत्यंत गर्व है।मेरे पालन पोषण के समय ही मैंने वहमी मानसिकता से मुक्त सोच विकसित कर ली थी जो किसी भी प्रकार के राजनितिक या धार्मिक प्रभाव से हीन थी। इसी कारण मैंने सक्रिय रूप से जन्म के आधार की जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए काम किया। मैंने उन्मुक्ता से RSS की जाति विरोधी आन्दोलनों में शामिल हुआ; तथा हिन्दू धर्मं में धार्मिक और सामाजिक समानता एवं योग्यता के आधार पर ऊँचा या नीचा होने की बात को बढावा दिया।
मैंने अनेको जाति विरोधी भोजो में भाग लिया जहाँ हजारो की संख्या में हिन्दू, ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार एवं भंगी रहते थे। हमने एक दुसरे की संगत में साथ खाना खाते हुए जाति व्यवस्था को ख़त्म कर दिया। मैंने रावण, चाणक्य, दादा भाई नैरोजी, विवेकानंद, गोखले, तिलक जैसे अनेको लोगो के लेख तथा भाषण पढ़े है तथा साथ में बहुत सारे लेखको की प्राचीन तथा आधुनिक भारत एवं कही अन्य प्रमुख देशो जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमरीका, रूस पर लिखा इतिहास पढ़ा है मैंने मार्क्सवाद तथा समाजवाद पर लिखे गए सिधान्तो को भी पढ़ा है। पर इन सबसे बढकर मैंने वह पढ़ा है जो वीर सावरकर और गाँधीजी ने लिखा बोला है। क्योंकि मेरे हिसाब से किसी भी चीज से बढकर इन दो विचारधाराओ ने भारतीय लोगो का सोच एवं कार्य करने के तरीके को ढालने में गहरा योगदान दिया है।
इतना सब पढने एवं सोचने के बाद मुझे भरोसा हो गया कि देशभक्त तथा विश्व नागरिक होने के नाते हिंदुत्व और हिन्दुओ की सेवा करना मेरा पहला धर्मं है। 30 करोड़ हिन्दुओ के हितो की आज़ादी और सुरक्षा जोकि पूरी मानव जाति का पांचवां हिस्सा है, अपने आप इस देश की आज़ादी और हित में होगी। इस सोच के कारण में प्राकर्तिक रूप से अपने आप को अपने हिन्दू संगठनो के सिधान्तो तथा कार्यकर्मो को समर्पित कर दिया। जो मुझे अकेले भरोसा करा गया कि ये मुझे भारत तथा मातृभूमि की आज़ादी एवं देश तथा मानवता कि सेवा के लिए सक्षम करेगा ।
1920; जब लोकमान्य तिलक का निधन हुआ उसके बाद कांग्रेस में गांधीजी का प्रभाव बहुत बढ़ गया और अंत में सर्वोच्च हो गया। उनके द्वारा जनता को जगाने में किये गए कार्य अद्भुत तथा असाधारण होते थे जिसमे सत्य तथा अहिंसा के नारे प्रबल होते थे जिसे उन्होंने आडम्बरपूर्णतया लोगो में फैलाया।कोई भी समझदार या प्रबुद्ध व्यक्ति इसकी खिलाफत नहीं करता।बल्कि इसमें कुछ भी नया या असल नहीं था। क्योंकि ये सारे संवैधानिक सार्वजनिक आंदोलन में निहित है लेकिन सच में अगर आप ढंग से सोचो तो यह एक स्वपन मात्र है कि इतनी बड़ी मानवता अपनी दैनिक जिंदगी में इन उदात्त सिद्धांतों का पालन करने में सक्षम है।
वास्तव में अपने देश व् स्वजनों के लिए सम्मान, कर्तव्य, प्रेम ही हमें अहिंसा कि उपेक्षा करने तथा बल प्रयोग के लिए मजबूर कर सकता है। मैं यह कभी नहीं समझ सका कि आक्रमण करने के लिए एक सशस्त्र प्रतिरोध अन्यायपूर्ण है मैं विरोध करने को अपना धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानूंगा और हो सका तो बल का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटूंगा। एक जोरदार लड़ाई मैं राम ने रावण को मारा और सीता को छुड़ाया। कृष्ण के कंस की दुष्टता के लिए उसका वध किया। अर्जुन को भी अपने भाइयो तथा दोस्तों से लड़ना पड़ा, यहाँ तक कि उन्हें अपने परम श्रद्धेय भीष्म के साथ भी लड़ना पड़ा क्योंकि वह आक्रमणकरियो कि तरफ से थे। मेरा यह मानना है कि राम, कृष्ण तथा अर्जुन को हिंसा का दोषी बताकर महात्मा गाँधी ने मानव जाति के साथ धोखे तथा अज्ञानता का परिचय दिया है
हाल ही के इतिहास में वीर छत्रपति शिवाजी ने लड़ाई लड़कर मुस्लिमो का आतंक ख़त्म किया था यह छत्रपति शिवाजी के लिए निहायत ही जरुरी हो गया था की वह अफज़ल खान का क़त्ल करे अन्यथा उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता। शिवाजी, राणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह जैसे इतिहास के वीर योद्धाओ की निंदा करकर तथा उन्हें गुमराह देशभक्त बताकर गाँधी जी ने अपनी व्यक्ति - निष्ठा(घमंड) का परिचय दिया है। वह एक असत्यवत, हिंसक शांतिवादी थे जो सत्य व अहिंसा के नाम पर अनेको अनकही आपदाओ को लेकर आये। जबकि राणा प्रताप,शिवाजी एवं गुरु गोविन्द सिंह हमेशा अपने अपने द्वारा दिलाई गयी आज़ादी के लिए देशवासियों के दिलो में प्रतिष्ठापित रहेंगे।
32 वर्षो की यह जमा उत्तेजना का समापन उनके द्वारा मुस्लिम समर्थित उपवास ने कर दिया। और अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा की गाँधीजी के अस्तित्व को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए। गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय तथा उनके अधिकारों के लिए बहुत अच्छा काम किया था। लेकिन जब वह भारत लौटकर आये तो उन्होंने एक व्यक्तिपरक मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्दर वह अकेले क्या सही और क्या गलत के अंतिम जज खुद बन गए। अगर देश को उनका नेतृत्व चाहिए तो उसे उनकी अभ्रांतता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। अगर वह नहीं करते तो वह अकेले कांग्रेस से अलग होकर देश को अपने बनाये रास्ते पर ले जाते।
इस तरह के एक दृष्टिकोण के खिलाफ कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता है या तो कांग्रेस को अपनी इच्छाओ का उनकी इच्छाओ के आंगे आत्मसमर्पण करना पड़ता एवं उनकी सनक, मनमानी, तत्त्वमीमांसा तथा प्राथमिक सोच साथ चलकर उसके साथ ही संतोष करना पड़ता या उनके बिना ही चलना पड़ता। वह अकेले ही हर बात के न्यायाधीश थे। उनका ही मास्टरमायंड सविनय अवज्ञा आन्दोलन के संचालन के पीछे था। किसी और को इस आन्दोलन कि तकनीक नहीं मालूम थी। उन्हें ही पता था कि इसे कब शुरू करना है और कब ख़त्म। आन्दोलन सफल या असफल हो सकता था, वह अनकही विपदाए या राजनीतिक पराजय ला सकता था पर इन सबसे गाँधी की अभ्रांतता पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। उनकी खुद कि अचूकता का उनका सूत्र था कि "एक सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता" पर एक सत्याग्रही कौन हैं यह उनके अलावा किसी और को पता नहीं था। इस तरह वह अपने कार्य के खुद ही सर्वे सर्वा बन गए। इस बचकाने दिवालियेपन एवं जिद्दीपन ने उनके कठोर जीवन ,लगातार काम तथा उदात्त चरित्र के साथ मिलकर गाँधी को दुर्जेय एवं अनूठा बना दिया।
बहुत सारे लोगो को लगा कि उनकी राजनीति तर्कहीन है पर उनके पास दो ही रास्ते थे या तो वह कांग्रेस से अलग हो जाते या अपनी बुद्धिमानी को उनके चरणों में रखकर वही करते जो वह चाहते। इस तरह अपनी पूर्ण लापरवाही के कारण गाँधी जी भूल के बाद भूल, असफलता के बाद असफलता, तथा विपदा के बाद विपदा के दोषी थे। भारत की राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर गाँधी की मुस्लिम समर्थित नीति उनके विकृत रवैये से जाहिर थी। यह काफी स्पष्ट था कि हिंदी का देश कि प्रमुख भाषा बनाने का दावा सबसे पहला था। अपना पेशा शुरू करने से पहले गाँधी जी ने हिंदी भाषा को बहुत प्रोत्साहित किया लेकिन उन्हें जब लगा कि यह मुस्लिमो को पसंद नहीं है वह एक ऐसी भाषा के मातोहत बन गए जिसे उन्होंने नाम दिया हिन्दुस्तानी। भारत में सभी को पता था कि हिन्दुस्तानी जैसी कोई भाषा नहीं है। ना तो हिन्दुस्तानी की कोई व्याकरण है और ना ही कोई शब्दावली। यह महज एक प्राकृत भाषा है यह बोली जा सकती है लेकिन लिखी नहीं जा सकती। यह मात्र एक कमीनी बोली तथा हिंदी तथा उर्दू की पर-नस्ल थी जिसे खुद महात्मा के कुतर्क लोकप्रिय नहीं कर पाए। लेकिन मुस्लिमो को संतुष्ट करने कि चाह में वह हिन्दुस्तानी को ही भारत की राष्ट्रभाषा बनाने पर उतारू हो गए। उनके अंधे अनुयायियों ने उनका इसमें समर्थन भी किया एवं तथाकथित संकर भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा। मुस्लिमो को संतुष्ट करने के लिए हिंदी भाषा के आकर्षण एवं शुद्धता का वेश्याकरण किया गया। उनके सारे प्रयोग हिन्दुओ की कीमत पर थे।
अगस्त 1946 से बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं हिन्दुओं का एक नरसंहार शुरू किया। तब के वायसराय लोर्ड वावेल जोकि हो रही घटनाओ से परेशान थे, 1935 के भारत सरकार के अधिनियम के तहत बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाए। हिन्दुओ का खून बंगाल से लेकर कराची तक बहना शुरू हो गया जिसका कुछ हिन्दुओ ने प्रतिशोध भी लिया। मुस्लिम लीग ने सितम्बर में गठित अंतरिम सरकार को इसकी स्थापना के समय से ही ना सिर्फ धराशायी कर दिया गया अपितु वह उस सरकार के विश्वासघाती तथा विद्रोही बन गए जिसका कभी वो हिस्सा थे और गाँधीजी का स्नेह उनके लिए और बढ गया। लोर्ड वावेल को इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि वह दोनों पक्षों में कोई भी समझोता नहीं ला पाए एवं लार्ड माउंटबेटन उनके उत्तराधिकारी बने। जड़ राजाओ की जगह मूड़ राजाओ ने ले ली। राष्ट्रीयता तथा समाजवाद का दावा करने वाली कांग्रेस ने इतने संगीन स्थिति में ख़ुफ़िया तरीके से पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया एवं कृपणतापूर्वक जिन्ना के आँगे समर्पण कर दिया। भारत के विभाजन कर दिया गया और एक तिहाई भारत का हिस्सा भारतीयों के लिए ही 15 अगस्त 1947 से विदेशी भूमि बन गया।
कांग्रेसी हल्कों में लार्ड माउंटबेटन को बहुत ही महान वायसराय और गवर्नर जनरल के रूप में दर्शाया गया है सत्ता सौंपने के लिए आधिकारिक तिथि 30 जून, 1948 के लिए तय की गई थी लेकिन लार्ड माउंटबेटन अपनी क्रूरता से दस महीने पहले ही हमें विभाजित भारत तोहफे में दे दिया। यह वो था जो गाँधी जी ने अपनी तीस साल निर्विवाद तानाशाही के बाद हासिल किया था। यह वो था जिसे कांग्रेस पार्टी 'आजादी' और 'सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण' कहती है।हिन्दू - मुस्लिम एकता बुलबुला अंततः फट गया था और नेहरू तथा उनके तथाकथित चमचो के अनुसार यह एक आदर्श राज्य की स्थापना थी। जिसे उन्होंने " त्याग व बलिदान के साथ जीती गयी स्वतंत्रता" का नाम दिया। पर किसका बलिदान ? जब गाँधी की सहमति से कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने देश को विभाजित कर दिया- जिन्हें हम पूज्यनीय मानते है- मेरा मन अति क्रोध से भर गया था।
गाँधीजी द्वारा अपना मृत्यु तक उपवास तोड़ने की अनेको शर्तो में से एक शर्त हिंदू शरणार्थियों द्वारा काबिज़ मस्जिदों से सम्बंधित थी।लेकिन जब पाकिस्तान में हिंदुओं को हिंसक हमले किये जा रहे थे उसकी निंदा करने के लिए पाकिस्तान सरकार या हिंसा में संलग्न मुस्लिमो के लिए उनके मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। गाँधीजी काफी चतुर थे उनके पता था कि मृत्यु तक उपवास को तोड़ने के लिए अगर उन्होंने कुछ शर्ते पाकिस्तानी मुस्लिमो के लिए भी रखी होती तो उन्हें शायद ही कुछ मुस्लिम मिलते जो उनकी उपवास के दौरान हुई मौत पर खेद जताते। इस कारण वह जान बुझकर मुस्लिमो पर किसी प्रकार की शर्ते थोपने से बचे। उन्हें अपने पुराने अनुभवों से अच्छी तरह पता था कि जिन्ना उनके इस उपवास से परेशान या प्रभावित नहीं होने वाले थे। और मुस्लिम लीग शायद ही उनकी अंतरात्मा की आवाज़ को कोई मूल्य लगाती।
गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में संदर्भित किया जा रहा था लेकिन अगर ऐसा है तो वह अपने पैतृक कर्तव्यों का पालन करने में असफल हुए है उन्होंने इस देश के विभाजन में अपनी सहमति देकर इस देश के साथ विश्वासघात किया है । मैं जोर देकर कहता हूँ कि गाँधी अपने कर्तव्यों का पालन करने में असफल रहे है। वह असल में पाकिस्तान के पिता साबित हुए है ।उनके भीतर की आवाज, उनकी आध्यात्मिक शक्ति और उनके अहिंसा के सिद्धांत जिसे बहुत बड़ा बनाया गया; जिन्ना की लोह सोच के आँगे टूटकर बिखर गयी एवं शक्तिहीन साबित हुई। संक्षिप्त में कहूँ; तो मैंने अपने बारे में सोचा , भविष्य देखा और यह पाया मैं पूरी तरह से बर्बाद हो जाऊंगा। मैं सिर्फ लोगो के घृणा का पात्र रहूँगा, अपना सम्मान भी खो दूंगा जो की मेरे जीवन से भी ज्यादा बहुमूल्य है अगर मुझे गांधीजी को मारना पड़ा तो। लेकिन उसी समय मैंने यह भी महसूस किया कि गांधीजी के अभाव में भारतीय राजनीति निश्चित रूप से व्यावहारिक साबित होगी। वह जवाबी कार्यवाही करने मैं सक्षम तथा सशस्त्र बलों के साथ शक्तिशाली होगी। इसमें मुझे तनिक भी संशय नहीं है कि मेरा अपना खुद का भविष्य पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगा पर देश को पाकिस्तान कि पैठ से बचाया जा सकेगा। कुछ लोग मुझे भावना रहित या मुर्ख कहेंगे या बतायेगे। पर यह देश तर्क पर स्थापित कार्य प्रणाली को अपनाने के लिए स्वतंत्र रहेगा जोकि मुझे लगता है कि किसी भी राष्ट्रनिर्माण के लिए अति आवश्यक है।
इस प्रश्न को पूरी तरह समझने के बाद इसमें मैंने अपना अंतिम निर्णय ले लिया। पर मैंने इसके बारे मैं किसी से भी बात नहीं की।मैंने दोनों हाथो में साहस लेकर 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना मैदान में गाँधी जी पर गोलिया दाग दी। मैं यह कहता हूँ कि मेरी गोलिया ऐसे आदमी पर दागी है जिसकी नीतियां और कार्य लाखो हिन्दुओ के लिए सिर्फ पीड़ा, बर्बादी और विनाश लायी। ऐसी कोई क़ानूनी मशीनरी नहीं है जो ऐसे दोषी को अपराध के दायरे मैं ला सकती है इसलिए मैंने वह घातक गोलिया चलाई। मेरी किसी के साथ कोई व्यक्तिगत ईर्ष्या नहीं है लेकिन मैं यह कहता हूँ कि मेरा इस वर्तमान सरकार के लिए कोई सम्मान नहीं है जो सिर्फ मुस्लिमो के लिए अनुकूल है। लेकिन मैं यह भी महसूस कर सकता हूँ कि यह सारी नीतियां सिर्फ गाँधी की उपस्थिति के कारण है।
मुझे यह कहते हुए बहुत अफ़सोस हो रहा है कि प्रधानमंत्री नेहरु यह भूल जाते है कि जब वह धर्मं निरपेक्ष राज्य कि बात करते है तो उनके उपदेश और कार्य एक दुसरे से बहुत अलग होते है क्योंकि यह ध्यान देने योग्य बात है कि नेहरु ने पाकिस्तान के सैधांतिक राज्य कि स्थापना मैं अग्रणी भूमिका निभाई है। और गाँधी की मुस्लिमो को रिझाने कि नीतियों ने नेहरू का काम और भी आसान कर दिया था अब अदालत के सामने खड़े होकर मैं यह स्वीकार करता हूँ और अपने द्वारा किये गए कृत्य कि पूरी जिम्मेदारी लेता हूँ। और न्यायाधीश जाहिर तौर पर मेरे खिलाफ सजा का उचित आदेश पारित कर सकते है। साथ में मैं यह जोड़ना चाहूँगा कि मैं किसी भी प्रकार के रहम की इच्छा नहीं रखता हूँ। ना ही मैं चाहता हूँ की कोई मेरे लिए दया मांगे। मेरी कार्रवाई के नैतिक पक्ष के बारे में मेरा विश्वास मेरे खिलाफ लगाए गए सभी पक्षों की आलोचना से भी हिला नहीं है. मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे द्वारा किये गए कृत्य को तौलेंगे एवं भविष्य में किसी दिन उसके सही महत्व को समझ पाएंगे।

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