Wednesday, 17 August 2016

जयसिंह
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जयसिंह अथवा 'मिर्ज़ा राजा जयसिंह' आमेर का राजा था। वह मुग़ल दरबार का सर्वाधिक प्रभावशाली सामंत था। बादशाह औरंगज़ेब के लिए वह सबसे बड़ा आँख का काँटा था। औरंगज़ेब ने मराठा प्रमुख छत्रपति शिवाजी को दबाने के लिए जयसिंह को भेजा था।
जिस समय दक्षिण में शिवाजी के विजय−अभियानों की घूम थी, और उनसे युद्ध करने में अफ़ज़ल ख़ाँ एवं शाइस्ता ख़ाँ की हार हुई तथा राजा यशवंतसिंह को भी असफलता मिली; तब औरंगज़ेब ने मिर्ज़ा राजा जयसिंह को शिवाजी को दबाने के लिए भेजा। इस प्रकार वह एक तीर से दो शिकार करना चाहता था।
जयसिंह ने बड़ी बुद्धिमत्ता, वीरता और कूटनीति से शिवाजी को औरंगजेब से संधि करने के लिए राजी किया। उसने बादशाह की इच्छानुसार शिवाजी को आगरा दरबार में उपस्थित होने के लिए भी भेज दिया, किंतु वहाँ शिवाजी के साथ बड़ा अनुचित व्यवहार हुआ और औरंगजेब की आज्ञा से उन्हें नज़रबंद कर दिया गया।
बाद में शिवाजी किसी प्रकार औरंगज़ेब के चंगुल में से निकल गये, जिससे औरंगज़ेब बड़ा दु:खी हुआ। उसने उन सभी लोगों को कड़ा दंड दिया, जिनकी असावधानी से शिवाजी को निकल भागने का अवसर मिल गया था।
मिर्ज़ा राजा जयसिंह और उसका पुत्र कुँवर रामसिंह भी उसके लिए दोषी समझे गये, क्योंकि वे ही शिवाजी की आगरा में सुरक्षा के लिए अधिक चिंतित थे।
औरंगज़ेब ने रामसिंह का मनसब और जागीर छीन ली तथा जयसिंह को तत्काल दरबार में उपस्थित होने का हुक्मनामा भेजा।
जयसिंह को इस बात का बड़ा खेद था कि शिवाजी को आगरा भेजने में उसने जिस कूटनीतिज्ञता और सूझ-बूझ का परिचय दिया था, उसके बदले में उसे वृद्धावस्था में अपमान एवं लांछन सहना पड़ा। इस दु:ख में वह अपनी यात्रा भी पूरी नहीं कर सका और मार्ग में बुरहानपुर नामक स्थान पर सन 1667 में उसकी मृत्यु हो गई।
जयसिंह वीर सेनानायक और कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का भी बड़ा प्रेमी था। उसी के आश्रय में कविवर बिहारी लाल ने अपनी सुप्रसिद्ध 'बिहारी सतसई' की रचना सन 1662 में की थी।
राणा साँगा
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राणा साँगा (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) को 'संग्राम सिंह' के नाम से भी जाना जाता है। वह राणा रायमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी था। इतिहास में संग्राम सिंह मेवाड़ का राजा साँगा के नाम से प्रसिद्ध था। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा और गुजरात के विरुद्ध अभियान किया।। राणा साँगा महान योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में से ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं था, जो उससे लोहा ले सके।
युद्ध की आवश्यकता
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बाबर के भारत पर आक्रमण के समय राणा साँगा को आशा थी कि वह भी तैमूर की भाँति दिल्ली में लूट-पाट करने के उपरान्त स्वदेश लौट जायेगा। किंतु 1526 ई. में राणा साँगा ने देखा कि इब्राहीम लोदी को 'पानीपत के युद्ध' में परास्त करने के बाद बाबर दिल्ली में शासन करने लगा है, तब उसने बाबर से युद्ध करने का निर्णय कर लिया। मालवा के महमूद ख़िलजी को युद्ध में हराने के बाद राणा साँगा का प्रभाव आगरा के निकट एक छोटी-सी नदी पीलिया ख़ार तक धीरे-धीरे बढ़ गया था। लेकिन सिंधु-गंगा घाटी में बाबर द्वारा मुग़ल साम्राज्य की स्थापना से राणा साँगा को ख़तरा बढ़ गया। राणा साँगा ने बाबर को भारत से खदेड़ने और कम-से-कम उसे पंजाब तक सीमित रखने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं।
बाबर का कथन
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बाबर ने राणा साँगा पर संधि तोड़ने का दोष लगाया। उसका कहना था कि- "राणा साँगा ने मुझे हिन्दुस्तान आने का न्योता दिया और इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ युद्ध में मेरा साथ देने का वायदा किया था, लेकिन जब मैं दिल्ली और आगरा फ़तह कर रहा था, तो उसने पाँव भी नहीं हिलाये।"
राणा साँगा के सहायक
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इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा साँगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था। हो सकता है कि उसने एक लम्बी लड़ाई की कल्पना की हो और सोचा हो कि जब तक वह स्वयं उन प्रदेशों पर अधिकार कर सकेगा, जिन पर उसकी निगाह थी। या शायद उसने यह सोचा हो कि दिल्ली को रौंद कर लोदियों की शक्ति को क्षीण करके बाबर भी तैमूर की भाँति लौट जायेगा। बाबर के भारत में ही रुकने के निर्णय ने परिस्थिति को पूरी तरह से बदल दिया। इब्राहिम लोदी के छोटे भाई महमूद लोदी सहित अनेक अफ़ग़ानों ने यह सोच कर राणा साँगा का साथ दिया कि अगर वह जीत गया, तो शायद उन्हें दिल्ली की गद्दी वापस मिल जायेगी। मेवात के शासक हसन ख़ाँ मेवाती ने भी राणा साँगा का पक्ष लिया। लगभग सभी बड़ी राजपूत रियासतों ने राणा की सेवा में अपनी-अपनी सेनाएँ भेजीं।
जिहाद का नारा
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राणा साँगा की प्रसिद्धि और बयाना जैसी बाहरी मुग़ल छावनियों पर उसकी प्रारम्भिक सफलताओं से बाबर के सिपाहियों का मनोबल गिर गया। उनमें फिर से साहस भरने के लिए बाबर ने राणा साँगा के ख़िलाफ़ 'जिहाद' का नारा दिया। लड़ाई से पहले की शाम उसने अपने आप को सच्चा मुस्लिम सिद्ध करने के लिए शराब के घड़े उलट दिए और सुराहियाँ फोड़ दी। उसने अपने राज्य में शराब की ख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक लगा दी और मुसलमानों पर से सीमा कर हटा दिया। बाबर ने बहुत ध्यान से रणस्थली का चुनाव किया और वह आगरा से चालीस किलोमीटर दूर खानवा नामक स्थान पर पहुँच गया। पानीपत की तरह ही उसने बाहरी पंक्ति में गाड़ियाँ लगवा कर और उसके साथ खाई खोद कर दुहरी सुरक्षा की पद्धति अपनाई। इन तीन पहियों वाली गाड़ियों की पंक्ति में बीच-बीच में बन्दूक़चियों के आगे बढ़ने और गोलियाँ चलाने के लिए स्थान छोड़ दिया गया।
खानवा का युद्ध
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'खानवा की लड़ाई' (1527) में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। बाबर के अनुसार साँगा की सेना में 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे। यह संख्या भी, और स्थानों की भाँति बढ़ा-बढ़ा कर कही गई हो सकती है, लेकिन बाबर की सेना निःसन्देह छोटी थी। साँगा ने बाबर की दाहिनी सेना पर ज़बर्दस्त आक्रमण किया और उसे लगभग भेद दिया। लेकिन बाबर के तोपख़ाने ने काफ़ी सैनिक मार गिराये और साँगा को खदेड़ दिया गया। इसी अवसर पर बाबर ने केन्द्र-स्थित सैनिकों से, जो गाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, आक्रमण करने के लिए कहा। ज़जीरों से गाड़ियों से बंधे तोपख़ाने को भी आगे बढ़ाया गया।
साँगा की पराजय
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बाबर की कुशल सैन्य क्षमता और उसके तोपख़ानों से साँगा की सेना बीच में घिर गई और बहुत से सैनिक मारे गये। राणा साँगा की पराजय हुई। राणा साँगा बच कर भाग निकला ताकि बाबर के साथ फिर संघर्ष कर सके, परन्तु उसके सामन्तों ने ही उसे ज़हर दे दिया जो इस मार्ग को ख़तरनाक और आत्महत्या के समान समझते थे। इस प्रकार राजस्थान का सबसे बड़ा योद्धा अन्त को प्राप्त हुआ। साँगा की मृत्यु के साथ ही आगरा तक विस्तृत संयुक्त राजस्थान के स्वप्न को बहुत धक्का पहुँचा।
'खानवा की लड़ाई' से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में ग्वालियर और धौलपुर जैसे क़िलों की शृंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से अलवर का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने मालवा स्थित चन्देरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान छेड़ा। राजपूत सैनिकों द्वारा रक्त की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा, क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।
महाराज रामसिंह
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महाराज रामसिंह मिर्ज़ा राजा जयसिंह के पुत्र थे। इनकी माता का नाम चौहान रानी आनंद कुंवर था। रामसिंह की माँ उनको पिता की तरह विद्वान और पराक्रमी बनाना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने रामसिंह को शिक्षा के उत्कृष्ट केंद्र वाराणसी में अध्ययन करने के लिए भेज दिया था।
राजा जयसिंह की मौत के बाद 10 सितंबर, 1667 को रामसिंह ने आमेर की गद्दी संभाली।
अपने पिता की तरह ही रामसिंह भी संस्कृत, फ़ारसी, और हिन्दी भाषाओं में निपुण थे।
रामसिंह ने मुग़ल बादशाह की सेवा में पूर्व में असम के रंगमती का मोर्चा संभाला। इसके बाद भारत की पश्चिमी सीमा पर कोहट के लिए भेजा गया।
राजा रामसिंह एक सक्षम व्यवस्थापक थे। उन्होंने अपने शौर्य से मुश्किल क्षेत्र असम में स्थिति को नियंत्रण में किया।
इतिहास में रामसिंह अपने सैन्य पराक्रम और दुर्लभ पुस्तकों व नक्शों के संग्रह के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपने नक्शानवीस से असम का नक्शा तैयार कराया था।
अप्रैल, 1688 में महाराज रामसिंह का निधन हुआ।
महाराज रामसिंह ने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे थे-
अलंकार दर्पण,
रसनिवास और
रसविनोद ।
'अलंकार दर्पण' दोहों में है।
नायिका भेद भी अच्छा है।
यह एक अच्छे और प्रवीण कवि थे।
सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।
मनो नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर
दमकन लागी दामिनी, करन लगे घन रोर।
बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर

अमरावती स्तूप या महाचैत्य, अमरावती - आंध्र प्रदेश


अमरावती स्तूप, जिसे महाचैत्य के रूप में भी जाना जाता है, अमरावती के मुख्य आकर्षणों में से एक है। यह शुरू में भगवान बुद्ध के एक महान अनुयायी, सम्राट अशोक जिसने बाद के वर्षों में बौद्ध धर्म अपना लिया था, के शासनकाल में बनवाया गया था। स्तूप बनाने का काम वर्ष 200 ईसा पूर्व में पूरा हुआ, तथा स्तूप पर की गई नक्काशियां, बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के जीवन की कहानी का चित्रण करती हैं।
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जब अमरावती सातवाहन शासकों की राजधानी बना, तो स्तूप को चूना पत्थर से सजाया गया तथा उन पर बुद्ध की स्वतन्त्र खड़ी मूर्तियों को उकेरा गया। हालांकि, बौद्ध धर्म में गिरावट के साथ-साथ, स्तूप भी उपेक्षित हो गये और 1796 ई. में इस स्थल का दौरा करने वाले कर्नल कॉलिन मैकेंज़ी नें इन चीजों को दबा हुआ पाया।
जब खुदाई का काम शुरू किया गया, तो स्तूप के साथ ही कई अन्य मूर्तियां का भी पता लगा एवं उन्हें बाहर निकाला गया। आज पूरे दक्षिण भारत के पूरे में, एकमात्र स्तूप ही अशोक स्तंभ के उदाहरण है।

Saturday, 6 August 2016



पिंगली वैंकैया
पिंगली वैंकैया (तेलुगु: పింగళి వెంకయ్య) भारत के राष्ट्रीय ध्वज के अभिकल्पक हैं। वे भारत के सच्चे देशभक्त एवं कृषि वैज्ञानिक भी थे।



जीवनी

पिंगली वैंकैया का जन्म 2 अगस्त1876 को वर्तमान आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के निकट भाटलापेन्नुमारु नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम हनुमंतारायुडु और माता का नाम वेंकटरत्नम्मा था और यह तेलुगु ब्राह्मण कुल नियोगी से संबद्ध थे। मछलीपत्तनम से हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद वो अपने वरिष्ठ कैम्ब्रिज को पूरा करने के लिए कोलंबो चले गये। भारत लौटने पर उन्होंने एक रेलवे गार्ड के रूप में और फिर बेल्लारी में एक सरकारी कर्मचारी के रूप में काम किया और बाद में वह एंग्लो वैदिक महाविद्यालय में उर्दू और जापानी भाषा का अध्ययन करने लाहौर चले गए।
वेंकैया कई विषयों के ज्ञाता थे, उन्हें भूविज्ञान और कृषि क्षेत्र से विशेष लगाव था। वह हीरे की खदानों के विशेषज्ञ थे। वेंकैया ने ब्रिटिश भारतीय सेना में भी सेवा की थी और दक्षिण अफ्रीका के एंग्लो-बोअर युद्ध में भाग लिया था। यहीं यह गांधी जी के संपर्क में आये और उनकी विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए।
1906 से 1911 तक पिंगली मुख्य रूप से कपास की फसल की विभिन्न किस्मों के तुलनात्मक अध्ययन में व्यस्त रहे और उन्होनें बॉम्वोलार्ट कंबोडिया कपास पर अपना एक अध्ययन प्रकाशित किया। वह पट्टी वैंकैया (कपास वैंकैया) के रूप में विख्यात हो गये।
इसके बाद वह वापस मछलीपट्टनम लौट आये और 1916 से 1921 तक विभिन्न झंडों के अध्ययन में अपने आप को समर्पित कर दिया और अंत में वर्तमान भारतीय ध्वज विकसित किया। उनकी मृत्यु 4 जुलाई1963 को हुई।

भारत के ध्वज की रचना

काकीनाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान वेंकैया ने भारत का खुद का राष्ट्रीय ध्वज होने की आवश्यकता पर बल दिया और, उनका यह विचार गांधी जी को बहुत पसन्द आया। गांधी जी ने उन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रारूप तैयार करने का सुझाव दिया।
पिंगली वैंकया ने पांच सालों तक तीस विभिन्न देशों के राष्ट्रीय ध्वजों पर शोध किया और अंत में तिरंगे के लिए सोचा। 1921 में विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में वैंकया पिंगली महात्मा गांधी से मिले थे और उन्हें अपने द्वारा डिज़ाइन लाल और हरे रंग से बनाया हुआ झंडा दिखाया। इसके बाद ही देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में दो रंगों वाले झंडे का प्रयोग किया जाने लगा लेकिन उस समय इस झंडे को कांग्रेस की ओर से अधिकारिक तौर पर स्वीकृति नहीं मिली थी।
इस बीच जालंधर के हंसराज ने झंडे में चक्र चिन्ह बनाने का सुझाव दिया। इस चक्र को प्रगति और आम आदमी के प्रतीक के रूप में माना गया। बाद में गांधी जी के सुझाव पर पिंगली वेंकैया ने शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया। 1931 में कांग्रेस ने कराची के अखिल भारतीय सम्मेलन में केसरिया, सफ़ेद और हरे तीन रंगों से बने इस ध्वज को सर्वसम्मति से स्वीकार किया। बाद में राष्ट्रीय ध्वज में इस तिरंगे के बीच चरखे की जगह अशोक चक्र ने ले ली।
source - wikipedia and news website

Thursday, 4 August 2016

GURUGINDIA

RAJASTHAN STATE ( INDIA)
श्रीगंगानगर के पर्यटन स्थल
श्रीगंगानगर के पर्यटन स्थल

समृद्ध कला संस्कृति के लिए विशेष रूप से जाना जाता है
राजस्थान स्थित गंगानगर जिला अपनी समृद्ध कला संस्कृति के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। इसके साथ ही यह जगह एशिया के सबसे बड़े कृषि फार्म के लिए भी प्रसिद्ध है। बिन्जोर, शिवपुरी कागद, शिवपुर, सूरतगढ़ तापीय विद्युत परियोजना और अनूपगढ़ आदि यहां के दर्शनीय स्थलों में से है। इन सबके के अलावा, यहां श्रीजगदम्बा मूक-बधिर विद्यालय भी है जिसे देश में पहली कम्प्यूटराईज्ड ब्रेल प्रेस यूनिट होने का गौरव प्राप्त है। यह जिला बिकानेर जिला के दक्षिण, हनुमानगढ़ जिला के पूर्व, पंजाब राज्य के उत्तर और पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से से घिरा हुआ है।                   

ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। थार रेगिस्तान के रेतील धोरों से आच्छादित राजस्थान प्रदेश के उत्तरी भू-भाग का  गंगानगर अपने आप में अनूठा इतिहास संजोये हुए हैं। जोधपुर के निर्माता राव जोधा के पुत्र बीका ने 1488 में बीकानेर की स्थापना की थी। ऐसा कहा जाता है कि बीकानेर के इतिहास में श्रीगंगानगर जिले का इतिहास भी छिपा हुआ है। राव बीका के उपरान्त राव लूणकरण ने बीकानेर राज्य पर राज्य किया। बीकानेर राज्य की सीमाओं को बढ़ाने के लिए लूणकरण के पुत्र जयसिंह ने अनेक युद्ध किए। वीर और तेजस्वी राजपूत शासकों के साहस पूर्ण प्रयत्‍नों से ही 15वीं शताब्दी में एक नये बीकानेर राज्य का निर्माण किया गया। पूर्व समय में यह जिला बीकानेर रियासत का हिस्सा था। इसके साथ ही भूतपूर्व रियासत वृहद राजस्थान के संयुक्त राज्य का हिस्सा बना और 30 मार्च 1949 . को श्रीगंगानगर क्षेत्र को एक नए जिले का रूप प्रदान किया या।

कहां जाएं
बिन्जोर: अनूपगढ़ से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर बिन्जोर गांव है। इस गांव में एक मजार बनी है। ऐसा कहा जाता है कि एक मजनू ने इस मरुस्थल में भटकते हुए अपनी अंतिम सांसे ली थी। प्रत्येक वर्ष यहां मेले का आयोजन किया जाता है।

शिवपुरी कागद: विजयनगर कस्बे के समीप में ही शिवपुरी कागद स्थित है। इस जगह पर एक दो मंजिला एक गढ़ी बनी हुई है। इसका आकार हवाई जहाज के पंखनुमा के समान है। यह इमारत भारतीय स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना कहा जा सकता है। इसका निर्माण बीकानेर राज्य के दीवान मानवाती सिंह ने करवाया था।

अनूपगढ: पूर्व समय में अनूपगढ़ को चुनेर के नाम से जाना जाता था। अनूपगढ़ में एक प्राचीन किला है जो कि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से है। इस किले को अनूपगढ़ का किला भी कहा जाता है। इस किले का निर्माण बीकानेर के महाराजा अनूपसिंहजी ने करवाया था।

कृषि फार्म: 1956 . में रूस की सहायता से बना सूरतगढ़ स्थित यंत्रीकृत कृषि फार्म एशिया का सबसे बडा़ फार्म है। इसके अलावा 1964-65 . में भारत सरकार की सहायता से बना निर्मित जतसर का यंत्रीकृत कृषि फार्म जिले के आधुनिक तीर्थ स्थल है।

शिवपुर हैड: शिवपुर गांव, श्रीगंगानगर से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बीकानेर के महाराजा श्रीगंगसिंह का सपना था कि वह इस क्षेत्र को अधिक विकसित कर सके। 26 अक्टूबर 1927 . को भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने इस जिले की प्राणदायिनी गंगनहर का पानी प्रवाहित कर उनके सपने को साकार किया।

सूरतगढ़ तापीय विद्युत परियोजना: सूरतगढ़ से 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ठुकराना गांव में प्रदेश की सबसे बड़ी तापीनय विद्युत परियोजना है। यह राजस्थान का सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट है। आरम्भ में इस विद्युत की उत्पादन क्षमता 500 थी किन्तु वर्तमान में 5 कार्यशील इकाईओं के साथ इसकी  क्षमता 1250 मेगावाट है। जबकि छठी इकाई अर्थात् 250 मेगावाट का कार्य प्रगति पर है। इस तापीय परियोजना को वर्ष 2000-2004 के विद्युत उत्पादन में अपने बेहतरीन प्रदर्शन के लिए भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय द्वारा गोल्डन शील्ड अवार्ड ने नवाजा गया था। यह पुरस्कार 24 अगस्त 2004 को भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति .पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा प्रदान किया गया था। यह परियोजना जिले की विद्युत आवश्यकताओं की पूर्ति कर वहां के तीव्र औद्योगिक विकास में सहायक सिद्ध हो रही है।

श्रीजगदम्बा मूक-बधिर विद्यालय: सन् 1980 . में परमहंस स्वामी ब्रह्मदेवजी की प्रेरणा और लगन से श्रीजगदम्बा मूक-बधिर विद्यालय की स्थापना हुई। इसके साथ यहां के स्थानीय और जिले के भामाशाहों ने इस विद्यालय को बनाने में सक्रिय सहयोग दिया। इस विद्यालय की विशेषता है कि इसे देश में पहली कम्प्यूटराईज्ड ब्रेल प्रेस यूनिट होने का गौरव भी प्राप्त है। इस ब्रेल प्रेस का उद्घाटन श्री बलीरामजी भगत ने 15 अप्रैल 1994 . में किया था। इस विद्यालय में पढ़ रहे मूक बधिर विकलांश छात्र अपने भावी जीवन को सुंदर बनाने का सार्थक प्रयास करते हैं।

GURU MOHAN CHOPRA
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